कुमाऊं में ‘बुढ़ दिवाई’ और गढ़वाल में ‘इगास’

Igas Bagwal Festival

Haribodhini Ekadashi | Igas Bagwal Festival | Budhi Diwali – दीपावली पर्व के बाद जो एकादशी आती है वह सामान्यतः ‘हरिबोधनी एकादशी’ के नाम से जानी जाती है। इस एकादशी को उत्तराखंड के गढ़वाल अंचल में इगास और कुमाऊं में बुढ़ दिवाई (बूढ़ी दिवाली) कहा जाता है। धार्मिक मान्यतानुसार इस दिन चार माह के चार्तुमास में क्षीरसागर में योगनिद्रा में सोने के पश्चात भगवान श्रीबिष्णु जाग्रत अवस्था में आ जाते हैं।

परम्परागत रूप से कुमाऊं अंचल में दीपावली का पर्व तीन स्तर पर मनाया जाता है। सबसे पहले कोजागरी यानी शरद पूर्णिमा की छोटी दिवाली के रूप में बाल लक्ष्मी की पूजा होती है, फिर मुख्य अमावस के दिन की दिवाली को युवा लक्ष्मी का पूजन होता है। चूंकि की इस अवधि में भगवान विष्णु निद्रा में रहते हैं सो अकेले ही माता लक्ष्मी के पदचिन्ह ‘पौ’ की छाप ऐपणों के साथ दी जाती है। जबकि अंतिम तीसरी चरण की दिवाली बुढ़ दिवाई (बूढ़ी दिवाली) के रुप में मनाई जाती है।

बूढ़ी दिवाली गढ़वाल में इगास

हरिबोधनी एकादशी यानि बूढ़ी दिवाली गढ़वाल में इगास के रूप में मनाई जाती है। मुख्यतः इगास पर्व गढ़ सेनापति माधो सिंह भंडारी के युद्ध में विजयी होकर गाँव लौट आने की याद में मनाया जाता है। लोक मान्यता के आधार पर 17 वीं शताब्दी में मलेथा गांव में जन्मे माधो सिंह भंडारी गढ़वाल के वीर भड़ ( योद्धा) थे। कहा जाता है कि एक बार तिब्बत से युद्ध में वे इतने व्यस्त हो गए कि दिवाली के समय श्रीनगर गढ़वाल नहीं पहुंच पाए। स्थानीय लोगों को आशंका हो गयी थी कि वे युद्ध में शहीद हो गए होंगे। तब इस वजह से गढ़वाल में दिवाली नहीं मनाई गई। लेकिन दिवाली के 11 दिन बाद माधो सिंह की युद्ध में विजय और सुरक्षित होने की खबर श्रीनगर गढ़वाल पहुंची। तब यहां सामूहिकता के साथ एकादशी के दिन दिवाली मनाने की घोषणा हुई। तभी से यहां एकादशी को इगास मनाने की परम्परा चल निकली। और तभी से इगास बग्वाल निरंतर लोकपर्व के रूप में मनाई जाती है। इगास के दिन गढ़वाल में गाँव के लोग भीमल की डंडियों और चीड़ की छिलकों को जलाकर सामुहिक स्थल पर भैलो खेलते हैं और मंडाण लगाते हैं।

कुमाऊं अंचल में बुढ़ दिवाई यानि बूढ़ी दीपावली

दीपावली के ग्यारह दिन पश्चात कुमाऊं अंचल में बुढ़ दिवाई यानि बूढ़ी दीपावली पर्व का महत्वपूर्ण स्थान है। इस दिन घर के अंदर से भुइँया निकाली जाती है। कुमाऊनी समाज में भुइँया को दुःख, दरिद्र व रोग शोक का प्रतीक माना गया है। भुइँया को गाँव के ओखल, सूप अथवा डलिया में गेरू व बिस्वार से चित्रित किया जाता है। सूप में चित्रित भुइँया को महिलाएं सुबह सबेरे घर के प्रत्येक कमरों से बाहर निकालती हुई आंगन तक लाती है। भुइयां निकालते समय खील बिखेरने के साथ ही रीखू( गन्ने) के डंडे से सूप को पीटा जाता है और ” आओ लक्ष्मी बैठो नरैण…भागो भुइँया घर से बाहर ” कहते हैं। सूप में रखे दाड़िम व अखरोट के दानों को आंगन में तोड़ा जाता है। साथ ही तुलसी के थान व ओखल में दिया जलाया जाता है। प्रकिया पूरी होने के बाद जब आंगन से घर के कमरों में प्रवेश करते हैं फिर “आओ लक्ष्मी बैठो नरैण ” कहते हुए व खील बिखेरते हुए आते हैं।

लेख साभार – श्री चंद्रशेखर तिवारी

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