हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास |
History of Haridwar from ancient times to 1947 |
हरिद्वार प्राचीनतम मानव बस्तियों के लिए प्रसिद्ध है और पौराणिक-धार्मिक स्थल हरिद्वार का वर्णन गंगाद्वार के नाम से महाभारत में भी हुआ है। कनखल की भारत के पुरानी बस्तियों में गिनती होती है। हरिद्वार जिला भारत के उत्तराखंड राज्य का एक जिला है। हरिद्वार गंगा तट पर स्थित है। हरिद्वार जब उत्तर प्रदेश में सहारनपुर जिले के इंटरगत था तो 1988 में नया जिला बना। 9 नवंबर 2000 में हरिद्वार नए प्रदेश उत्तराखंड का भाग बना।
हरिद्वार अक्षांस -उत्तर 29.96 और देशांश-पूर्व 78.16 में स्थित है ।
क्षेत्रफल - 2360 किलोमीटर
तापमान - गर्मियों में 15 अंश से 42 अंश और सर्दियों में 6 से 16.6 अंश तक।
हरिद्वार की ऊंचाई - समुद्र तल से 249 . 7 मीटर
हरिद्वार के दक्षिण में, पूर्व में उत्तराखंड का पौड़ी जिला व उत्तरप्रदेश का बिजनौर व पश्चिम में उत्तर प्रदेश के जिले हैं और उत्तर में उत्तराखंड का देहरादून जिले स्थित हैं। मानसून जुलाई -सितम्बर तक होता है।
2001 की जनसंख्या के अनुसार हरिद्वार की जनसंख्या 14 47187 थी। जनसंख्या घनत्व 2001 में 613 वर्ग किलोमीटर था। आज हरिद्वार में तीन तहसील -हरिद्वार, रुड़की व लक्सर हैं।
- हरिद्वार जनसंख्या व जातिगत , पंथ व धार्मिक मान्यताओं अनुसार विविधरूपी जिला है।
- हरिद्वार शिवालिक पहाड़ियों पर स्थित है और विभिन्न वनस्पतियों व जीव जंतुओं से भरपूर है।
History of Haridwar from ancient times to 1947
हरिद्वार की प्रस्तर उपकरण सभ्यता
अनुमान किया जाता है कि धरती के कुछ भागों में मानव की वह अवस्था छः लाख साल पूर्व थी जब मानव चलने -फिरने और बानी -बोली का प्रयोग सीख चुका था (पिगॉट )।
प्रस्तर उपकरण संस्कृति का आरम्भ मिश्र को माना जाता है जहां छः लाख साल पूर्व मानव ने सभ्यता के सोपान शुरू कर दिए थे । फ़्रांस व इंग्लैण्ड में यह सभ्यता साढ़े चार लाख साल पहले आई। तब से लेकर सात हजार साल पहले तक और कुछ भागों में साढ़े तीन हजार साल पहले तक मानव प्रस्तर उपकरण संस्कृति तक ही सीमित रहा। इस लम्बे युग में जहां जहां मानव सभटा पनपी यह सभ्यता पथरों के उपकरणों का प्रयोग करती रही।
पाषाण युग में मानव पत्थरों के उपकरणों से काम चलाता था और मानव श्रेणी में आ गया था। साढ़े चार हजार साल पहले मनुष्य ने धातु उपकरण अपनाने शुरू किये।
पाषाण युग को इतिहासकार तीन युगों में बांटते हैं -
१- आदि प्रस्तर उपकरण युग (Palaeolithic Age )- पचास हजार साल पहले से एक लाख साल पहले
२- मध्य प्रस्तर उपकरण युग (Mesolithic Age )
३-उत्तर प्रस्तर उपकरण युग (Neolithic Age )
हरिद्वार की आदि प्रस्तर उपकरण सभ्यता (पचास हजार साल पहले से एक लाख साल पहले )
जब हिमयुग समाप्त हुआ और शुष्क युग प्रारम्भ हुआ तो भारत के मैदानी इलाका मानव जीवन के लिए उपयुक्त स्थान साबित हो चुका था। हरिद्वार के बहादराबाद प्रस्तर युग के कई उपकरण मिले हैं (घोष ) जिनसे पता चलता है कि पत्थर युग में सहारनपुर , भाभर , बिजनौर में प्रस्तर युग में मानव सभ्यता थी। इसी तरह के उपकरण राजस्थान , गुजरात , नर्मदा व सहायक नदी घाटियों में भी मिले हैं। यद्यपि धरातल की ऊपरी सतह में मिलने के कारण यह अनुमान लगाना कठिन सा है कि उपकरण सचमुच में किस युग के हैं। इस युग में बड़े अश्व , हाथी और हिप्पोटौमस नर्मदा घाटी में विचरण करते थे।
उपरोक्त पशुओं के आखेट करने मनुष्य के अस्तित्व के प्रमाण बहादराबाद हरिद्वार (घोष ); शिवालिक व हिमालय ऊँची ढालों पर , पंजाब में सोननदी के पास ,करगिल व नमक की पहाड़ियों के पास भी मिले हैं (डबराल ). घोष ने बहदराबाद में मिले कुछ उपकरणों के चित्र भी अपनी पुस्तक में दिए हैं।
हरिद्वार में सोननदी सभ्यता में मानव प्रसार
अनुमान किया गया है कि सोननदी सभ्यता अधिक से अधिक चार लाख पुराने व कम से कम दो लाख साल पहले रही होगी।
ऐसा लगता है कि इस दौरान कई मानव शाखाएं समाप्त हुयी होंगी और अगण्य नई मानव शाखाये आई होंगी।
सोन नदी सभ्यता के उपकरण
हरिद्वार में पाषाण युगीन जीवन
हरिद्वार समेत उत्तराखंड का आदि मानव आखेट व उँछ वृति से अपना जीवन निर्वाह करता था। हरिद्वार के आदि मानव के भोजन में पशु -पक्षियों का मांश व मछलियाँ एवं शहद का स्थान सर्वोपरि था। वनैलै फल फूल व कंदमूल भी आदि मानव के भोज्य पदार्थ थे। नर्मदा घाटी का आदि पाषाण युगीन मानव घोड़े, भैंसों, हाथी व हिपोटैमस का मांश भक्षण करता था।
उस काल में हरिद्वार , हिमालय की कम ऊँची घाटियों व पंजाब से नेपाल की घाटियों में उपरोक्त पशुओं के अवशेष नही मिले हैं।
किन्तु शिवालिक श्रेणी के भाभर क्षेत्र , गढ़वाल, हरिद्वार , सहारनपुर , बिजनौर में मिटटी की ऊपरी दो परतों (कॉन्ग्लोमरेट , बालुज शिलाओं ) में भारी मात्रा में छोटे बड़े पशुओं के फोजिल्स मिले हैं। इन पशुओं और नर्मदा घाटी के पाषाण कालीन पशुओं में समानता थी. अतः यह निश्चित है कि हरिद्वार में पाषाण कालीन मानव इन्ही पशुओं का आहार करता था।
हरिद्वार से दो सौ मील नीति द्वार में (15000 फुट ऊंचाई ) उपरोक्त पशुओं के अवशेष भी मिले हैं। इसका अर्थ है कि लाखों साल पहले नीतिद्वार व हरिद्वार क्षेत्र की ऊंचाई में अधिक अंतर नही था।
पाषाण युगीन आदि मानव हरिद्वार, बिजनौर, भाभर, सहारनपुर आदि जगहों में छोटी छोटी टोलियों में घुमन्तु जीवन व्यतीत करता था व शिकार हेतु इधर से उधर भटकता रहता था। जलाशयों के निकटवर्ती स्थानो में खुली जगहों व सुरक्षित जगहों में रहता था वह टीलों या वृक्षों में रात व्यतीत करता था। शीतकालीन व वारिश में आदि कालीन, अस्थायी झोपड़ियों में रहता था।
हरिद्वार, बिजनौर, उत्तराखंड का आदि मानव भी अपने मृतकों को वन या नदियों में फेंक देता था। जिनकी वृक्षों से गिरकर, जंगली जानवरों से अकाल मृत्यु होती थी उन्हें वह मानव वैसे ही छोड़ देता था।
अब तक हरिद्वार के आदि पाषाण युगीन मानव के अस्थि मिलने से उस कालीन उपकरणों के आधार पर ही आदि मानव के जीवन शैली निर्धारित की जाती है।
हरिद्वार में प्रस्तर युग या प्रस्तर छुरिका संस्कृति इतिहास
पाषाण युग को इतिहासकार तीन युगों में बांटते हैं -
1- आदि प्रस्तर उपकरण युग (Palaeolithic Age )- पचास हजार साल पहले से एक लाख साल पहले
2- मध्य प्रस्तर उपकरण युग (Mesolithic Age )10 हजार साल पहले से 50000 साल पहले तक
3-उत्तर प्रस्तर उपकरण युग (Neolithic Age ) 10 साल पहले से धातु युग 6 -से 3000 वर्ष पहले तक ?
आदिमानव कई लाख सालों तक आखेट संस्कृति पर अटका रहा। सवा पांच लाख साल तक मनुष्य अग्नि प्रयोग न कर सका; पशु पक्षियों को पालतू न बना सका और कृषि की खोज न कर सका।
करीब 70000 वर्ष पूर्व संस्कृति में भारी उलटफेर शुरू हुए। अगले 50 हजार साल बाद मानव संस्कृति में बदलाव आया और मानव प्रकृति के साथ प्रयोग करने लायक हो गया इस युग को मध्य प्रस्तर उपकरण युग या Mesolithic Age कहते हैं। इस युग में मानव
काष्ठ , पत्थर व हड्डी के उपकरणों के विकास करना सीख गया। जैसे कि संस्कृति विकास में उपकरण अधिक हल्के और सुविधाजनक होते हैं तो इस काल में भी उपकरण परिस्कृत हुए। मनुष्य नई चकमक पत्थर से आग निकालना भी सीख लिया था। आग को सुरक्षित रखने की कला भी मनुष्य ने इसी काल में सीखी। माँशादी भूनने की कला मनुष्य ने सीख ली थी।
मनुष्य अब प्राकृतिक गुफाओं और अस्थाई घास फूस की झोपड़ियों में रहने लग गया था। आखेट अब भी भोजन का मुख्य स्रोत्र था।
मनुष्य इस युग में अपने मृतकों को अपनी गुफाओं या आस पास दफनाने लग गया था और दूसरे युग में पुनर्जन्म की कल्पना करने लग गया था व मृतक के लिए भोजनादि रखने की परम्परा भी इसी युग में शुरू हुयी।
प्रस्तर उपकरणों में नयापन व विकास हुआ। अब प्रस्तर उपकरण तेज , पतले छोटे होने लगे थे।
भारत में मध्य प्रस्तर युगीन प्रस्तर छुरिकाएँ दक्सिन में तिनवेली, आंध्रा, पश्चिम में काठियावाड़ , मध्यप्रदेश में छोटा नागपुर आदि में मिले हैं।
हरिद्वार उत्तराखंड में प्रस्तर छुरिका संस्कृति
डा. यज्ञदत्त शर्मा (Ancient India vol 9 page 71 ) को बहादराबाद , हरिद्वार के पास प्रस्तर छुरिकाएँ व ऐसी शिलाओं के अवशेष मिले थे जिनसे प्रस्तर छुरिका बनती थीं, डा. शर्मा की धारणा थी कि इस स्थान पर प्रस्तर छुरिका बस्तियां बसतीं थीं।
बहादराबाद में बाद में कुछ अन्य संस्कृति के लक्षण भी मिले थे।
सामग्री के अभाव में यह अंदाज लगाना कठिन है कि उत्तराखंड में कब प्रस्तर छुरिका संस्कृति कब शुरू हुयी और कब तक यह संस्कृति रही।
हरिद्वार क्षेत्र में उत्तर -प्रस्तर उपकरण युग
उत्तर प्रस्तर उपकरण युग 15 000 -2 000 BC के करीब माना जाता है।
इस युग की कुछ विशेष विशेषतायें निम्न हैं -
1- पशु पालन प्रारम्भ
2- कृषि की शुरुवाती युग
3-चिकने , चमकीले व पोलिस किये प्रस्तर उपकरण
4- भांड उपकरणों की शुरुवात
उत्तर अफ्रिका और दक्षिण एशिया में तापमान वृद्धि से वर्षा कम होनी लगी और मानव नदी घाटी की ओर पलायन करने लगा। पानी की कमी से मानव के लिए जंगलों में भोजन की कमी होने लगी तो उसे कृषि पशुपालन जैसे कर्म की ओर अग्रसर होना पड़ा।
अब प्रस्तर उपकरणों में कला , व सुविधाएँ विकसित होने लगे। उपकरण चिकने , चमकीले, हल्के , सुविधाजनक , कलायुक्त होने लगे. पत्थर के औजारों में कुल्हाड़ी , छेनी , हथौड़े , गंडासे , खुरपा , कुदाल आदि विकसित हो गए।
पशुपालन का प्रारम्भ
विद्वानो का मानना है कि मनुष्य ने उपयोगी व पालतू होने लायक पशुओं -पक्षियों कर ली थी. विद्वानो की धारणा है कि पशु पालन की शुरुवात नील घाटी , सिंधु घाटी में ना होकर मध्यवर्ती पहाड़ियों हुआ था (कून -रेसेज ऑफ यूरोप 79 )। अबीसीनिया , यमन , अनातोलिया , ईरान अफ़ग़ानिस्तान , जम्मू कश्मीर से लेकर पश्चमी नेपाल तक उत्तर प्रस्तर उपकरण संस्कृति समुचित विकास हुआ।
डा डबराल का कथन है कि हिमालय , शिवालिक की कम ऊँची पहाड़ियों , हरिद्वार -बिजनौर के आस पास की पहाड़ियों आज भी जंगली बिल्लियाँ , वनैले भेड़ -बकरी , जंगली कुत्ते मिलने से सिद्ध होता है कि हरिद्वार -बिजनौर के आस पास के क्षेत्रों , हिमालय में उत्तर प्रस्तर संस्कृति प्रसारित हुयी होगी। जगंली जानवरों के फोजिल्स भी सिद्ध करते है की मध्य हिमालय , शिवालिक पर्वत श्रेणी में उत्तर प्रस्तर उपकरण संस्कृति थी। सहारनपुर क्षेत्र में हड़पा /सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष भी यही बताते हैं कि हरिद्वार जिले में भी उत्तर प्रस्तर सभ्यता थी। आदि मानव शिवालिक श्रेणी में विचरित करता था। सी पी वर्मा द्वारा पत्तियों के फोजिल्स खोज से भी अंदाज लगता है कि हरिद्वार क्षेत्र में उत्तर -प्रस्तर उपकरण संस्कृति फलती फूलती थी (Journal of Paleont Soc India 1968) अग्नि उपयोग भी मनुष्य ने इसी युग में सीखा और कृषि भी इसी युग में शुरू हई।
आग से जगल जलाकर वर्षा व बाढ़ से स्वतः उतपन उर्बरक जमीन में भोज्य पदार्थों के बीजों को बिखेरकर कृषि की जाने लगी जो हरिद्वार क्षेत्र में भी अवश्य अपनायी होगी।
हरिद्वार क्षेत्र में भी उत्तर प्रस्तर उपकरण सभ्यता में नारी का परिश्रम
उत्तर प्रस्तर उपकरण सस्ंकृति में भी नारी का कार्य आज जैसे ही परिश्रमपूर्ण था। नारी झोपडी में आग सुरक्षित रखती थी। नारी मृतिका /मिट्टी या काष्ठ पात्र बनाती थी। शायद नारी ने ही मृतिका पात्र का आविष्कार किया होगा। नारी काष्ट , हड्डियों अथवा पत्थर के औजारों से फल तोड़ती थीं , कंद मूल फल उखाड़ती थी। पुरुष आखेट , पशुओं का डोमेस्टिकेसन , पशुओं की शत्रुओं से रक्षा करता था। मातृपूरक समाज की नींव भी इसी युग में पड़ी होगी। नारी परक संस्कृति से हरिद्वार क्षेत्र भी अछूता ना रहा होगा। देव पूजा का प्रचलन होने से नारी ही पूजा पाठ करती रही होंगी।
वनस्पति व जंतु-कंद मूल फलों , साक सब्जियों प्याज , बथुआ , , कचालू ,अरबी , खीरा , चंचिड़ा , नासपाती , अंगूर , अंजीर , केला , दाड़िम , खुबानी , आरु , बनैले रूप में हिमालय की ढालों पर कश्मीर से उत्तराखंड से लेकर नेपाल तक आज भी मिलते हैं. गेंहू , जौ व दालों की कृषि भी विकसित हो चुकी थी।
पालतू पशुओं को सुरक्षित रखने के लिए टोकरियाँ, रस्सी आदि का भी विकास हुआ। धनुष बाण का अविष्कार , परिष्कृतिकरण भी हुआ। पशुओं की खालों से तन भी ढका जाता था। कालांतर में उन के कपड़े भी बनने लगे। जो भी पशु इस युग में पालतू किये गए उसके बाद कोई नया पशु आज तक मनुष्य पालतू न बना सका।
बस्तियां और युद्ध- आग , कृषि व पशुचारण से नदी घाटियों में बस्तियां बस्ने लगीं। नहरों के विकास ने सहकारिता की नींव भी डाली।
किन्तु साथ में समृद्धि , व्यापार व नारी हेतु युद्ध अधिक होने लगे। कलह आम संस्कृति होने लगी। समृद्ध व् अकिंचन की शुरुवात भी इसी युग में पड़ी। दास वृति मनुष्य विक्री भी इसी युग की देंन है। पलायन जोरो से हुआ और एक वंश के दूसरी जाति के साथ रक्त मिश्रण आम बात हो गयी।
उत्तराखंड के हरिद्वार , भाभर भूभाग व बिजनौर का इस युग पर अन्वेषण कम ही हुआ अतः कहना कठिन है कि उत्तर प्रस्तर उपकरण युग में इन स्थानो पर किस नृशाखा के बंशज हरिद्वार , देहरादून , भाभर , बिजनौर क्षेत्र में विचरण करते थे और उनके धार्मिक , सामाजिक संस्कृति क्या थी ।
संदर्भ
१- डा शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास भाग - 2
२- पिगॉट - प्री हिस्टोरिक इंडिया पृष्ठ - २२
३- नेविल , 1909 सहारनपुर गजेटियर
धातु युग में हरिद्वार -1
उत्तर प्रस्तर और खनिज पदार्थों के धातु युग को सीधा बांटना कठिन है क्योंकि आज भी प्रस्तर युगीन उपकरण मनुष्य प्रयोग करता है। धातु उपकरण संस्कृति भी अन्य संस्कृतियों की तरह धीरे धीरे प्रसारित हुयी। धातु युग को प्राचीन युग समाप्ति नाम भी दिया जाता है।
धातु युग का प्रारंभ 5000 -4500 BC माना जाता है।
मिश्र और मेसोपोटामिया में धातु उपकरण युग शुरू होकर एक हजार सालों में यूरोप के एजियन सागर -अनटोलिया तक व पूर्व में ईरान के पठारों तक प्रसारित हो गया।
धातु युग को दो मुख्य भागों में विभाजित किया जाता यही
१- ताम्र -कांस्य उपकरण युग
२- लौह युग
ताम्र -कांस्य युग
इतिहासकार ताम्र और कांस्य युग को अलग अलग युगों में बांटते
युग व कांस्य युग के ठठेरों का सम्मान भगवान के बराबर था। धातुकारों को शक्तिसमपन माना जाता था कि कांस्य निर्माता इस तरह बर्बर मानव समाज में भी बस गए। प्रत्येक गाँव में तमोटे (ताम्रकार ) को बसाना आवश्यक हो गया था।
उत्तर प्रस्तर युग कृषि पशुपालन से जो समृद्धि आई उसका उपयोग धातु उपकरण अन्वेषण में सही प्रकार से होने से और भी समृद्धि आई। मानव नदी घाटियों व कृषि योग्य जमीन बसने लगा और कुछ कुछ जंगल से बाहर बसने लगा। अभ्यता का विकास याने जंगल पर निर्भरता कम होना।
इस युग की प्रमुख विशेषताए -
आवास
भोजन सामग्री की प्रचुरता और भोजन सामग्री में शाकाहारी भोजन की अधिकता
इस युग में नदी किनारे नगर बस्ने लगे और वित्शालकाय भवनो व मंदिरों का निर्माण शुरू हो गया। विशालकाय भवनों , मंदिरों को बनाने हितु मजदूर, दास , कारीगर , शिल्पकार जंगलों या गाँवों से नगरों की ओर आने लगे और इस तरह गांवों से शहरों की ओर पलायन का प्रारम्भ भी इसी काल में हुआ।
दक्षिण -पश्चिम एशिया , उत्तर पश्चिम एशिया में कई सभ्यताओं ने जन्म लिया जिनमें भारत व मिश्र प्रमुख क्षेत्र हैं।
पश्चिम में शक्तिशाली राज्यों की स्थापना हुयी और व्यापार को प्रसर मिला। कई व्यापारिक केंद्र खुले। कई परिवहन माध्यमों ने जन्म लिया। साहसी व्यापारी समुद्र से भी व्यापार संलग्न हो गए। स्थलीय , समुद्री मार्गों से अफ्रीका , एशिया यूरोप के मध्य संचार शुरू हो गया। एक क्षेत्र के निवासी दूसरे क्षेत्र पर निर्भर होने लगे।
नगरों की समृद्धि एवं व्यापार वृद्धि संग्रह जनित अहम को साथ में लायी और लूटपाट , छापे , डाकजनि , युद्ध आम हो गए। दासव्यापार ने अति विकास किया।
मध्य ताम्र युग मनुष्य ने अश्व को परिपूर्ण ढंग से साध लिया और घोड़ा परिवहन साधन मुख्य अंग बना गया और कई क्षेत्रों में मनुष्य का घोड़े पर निर्भरता आज भी कम नही हुयी। परिवहन में वेग आ गया।
अश्वरोहण से युद्ध में तीब्रता , एक सभ्यता द्वारा दूसरी सभ्यता को रौंदना भी प्रारम्भ हुआ।
अश्वारोहियों द्वारा मेसोपोटामिसा को उजाड़ा गया। हिक्सो सभ्यता ने मिश्र को और नासिली भाषियों ने अन्तोलिया सभ्यता का नाश किया। इसी युग में ईरान से घुमन्तु अश्वारोही लोग भारत की और बढ़े।
ताम्र कल्प में नगर -गाँव बसने लगे थे और नियम भी बनने लगे थे व प्रशासनिक प्रबंध शास्त्र की नींव भी इसी युग में सही माने में नींव पड़ी। नगर प्रशासन के कारण सामंतशाही की भी नींव ताम्रयुग में पड़ी। दासता सभ्यताओं का अंग बन गया था। दास प्रथा व भाड़े के सैनिकों का प्रयोग सामान्य संस्कृति बन चला था। अट्टालिकाओं को बनाने के लिए दास प्रयोग होने लगे। कला पक्ष व वैज्ञानिक अन्वेषण भी विकसित होने लगा था। कलाकार व वैज्ञानिकों की समाज में समान बढ़ गया था।
ताम्र उपकरण युग में धार्मिक , सामाजिक , सांस्कृतिक परम्पराओं की नींव पड़ी और कई परम्पराएँ तो बहुत से क्षेत्र में आज भी विद्यमान हैं. भारत में शवदाह परम्परा इसी युग की देन है।
उत्तर भारत में ताम्र उपकरण संस्कृति
धातु युग में हरिद्वार -2
उत्तर भारत में ताम्र उपकरण संस्कृति
भारत में धातु उपकरण संस्कृति किस समय जन्मी और कौन सी मानव जाति उपकरण संस्कृति भारत में लायी पर विद्वानो में मतैक्य है। जिस समय मेसोपोटामिया और ईरान में धातु संस्कृति फल फूल रही थी , उस समय भारत में भी धातु सभ्यता विकसित हो रही थी।
ऋग्वेद में अयस शब्द ताम्बा , लोहा और दोनों के लिए प्रयोग हुआ है। जिसका अर्थ है कि भारत में वैदिक सभ्यता से कहीं बहुत अधिक पहले ताम्र -कांसा -लौह संस्कृति जन्म ले चुकी थी।
भूगर्भ वेत्ताओं का मानना है कि सिंघभुमी , हजारीबाग (झारखंड ) में ताम्र धातु खनन पिछले दो हजार सालों से चलता आया है।
नेपाल, सिक्किम , गढ़वाल -कुमाऊं में ताम्र खनन पिछले पच्चीस -छबीस वर्षों से चला आ रहा है।
जब तक सहारनपुर , हरियाणा , गुजरात में हड़प्पा संस्कृति के अवशेस नही मिले थी अतब तक गंगा -यमुना दोआब में ताम्र उपकरण संस्कृति अस्तित्व के प्रमाण केवल धरातल के उपर प्राप्त अवशेषों से ज्ञान प्राप्त होता था।
पीछे हैदराबाद , तमिलनाडु , कर्नाटक ताम्र सभ्यता के अवशेष मिले।
उत्तरी भारत व मध्य भारत , ओडिसा बिहार में भी ताम्र उपकरण मिले , जिससे पता चलता है ताम्र उपकरण संस्कृति का विकास मुख्यतया उत्तर भारत, पंजाब , सिंधु घाटी में हुआ।
उत्तर प्रदेश में राजपुर परशु (बिजनौर ), बहादराबाद (हरिद्वार ); फतेहगढ़ , बिठूर , परिआर ; बिसौली ; सरयोली तथा शिवराजपुर ताम्बे के उपकरण मिले। इन उपकरणों में फरसा , छोटी कुल्हाड़ियाँ , छुर्रियां , खुक्रियां , भाले , बरछे , हारपून आदि मिले हैं।
भारत में ताम्र उपकरण संस्कृति स्मारक हिमालय की कम ऊँची पहाड़ियों , शिवालिक पहाड़ियों में मिले हैं जहां पत्थर के उपकरण बनाने की भी सुविधा थी। उत्तर भारत में पर्वतों से दूर मैदानों में ताम्र उपकरण संस्कृति स्मारक नही मिलते हैं क्योंकि यहां उस प्रकार के पत्थर नही मिलते रहे होंगे जिनसे प्रस्तर उपकरण बनाये जा सकते थे।
गंगा घाटी व सिंधु घाटी ताम्र उपकरणों के अतिरिक्त कतिपय कांस्य उपकरण भी मिले हैं। चूँकि भारत में टिन कम था तो कांस्य उपकरण कम ही मिले हैं , मद्रास के तिनवेला व उत्तर में पांडव संस्कृति के अवशेषों में धार्मिक कांस्य उपकरण मिलने से सिद्ध होता है कि भारत में ताम्र -कांसा संस्कृति प्रसार अधिकता के साथ हुआ।
हरिद्वार में ताम्र- कांस्य उपकरण संस्कृति
हरिद्वार से बारह किलोमीटर दूर बहादराबाद में नहर खोदते हुए जो ताम्र उपकरण मिले थे वे ताम्र उपकरण उत्तर प्रदेश के अन्य ताम्र उपकरण संस्कृति के उपकरण सामान हैं।
अम्लानन्द द्वारा संपादित ऐन इनसाइक्लोपीडिया ऑफ इंडियन आर्कियोलॉजी , पृष्ठ 37 में बहादराबाद के बारे में लिखा है -
इस स्थान से रेड वेयर और बाद में ताम्र उपकरणो के ढेर मिले । इन ताम्र उपकरणों में छल्ले , व अन्य उपकरण मिले जो सोन घाटी की संस्कृति द्योतक थे।
घोष व बी बी लाल ने भी बहदराबाद में खोज की। अम्लानन्द के अनुसार बहादराबाद में जार ( घड़ा )भी मिला।
डॉ डबराल ने डा लाल व डा घोष की खोजों और दलीलों के आधार पर लिखा है की गंगाद्वार (बहादराबाद , हरिद्वार ) से ताम्र परशु , छुर्रिकाएँ , कुल्हाड़ी , भाले , बरछे व हारपून्स मिले .
इतिहासकार मानते हैं की इन ताम्र उपकरणों के बनाने के लिए ताम्बा राजपुताना , छोटा नागपुर , सिंघभूमि और उड़ीसा से आता था।
किन्तु डा डबराल सिद्ध करते हैं कि गंगाद्वार (हरिद्वार ) ताम्र उपकरण निर्माण हेतु ताम्बा गढ़वाल के धनपुर , डोबरी , पोखरी (हरिद्वार से 70 मील दूर ) से ही आता होगा।
हरिद्वार से सटे जिला बिजनौर (उत्तर प्रदेश ) के राजपुर परसु में धातु युगीन कुल्हाड़ियों , छड़ें , हारपून्स ,आदि मिले हैं (पॉल यूल , मेटल वर्क ऑफ ब्रॉन्ज एज इन इण्डिया , पृष्ठ 41 -42 ) ।
इसी तरह , हरिद्वार से सटे सहारनपुर जिले के नसीरपुर में भी धातु युगीन उपकरण मिले है ( पॉल यूल , मेटल वर्क ऑफ ब्रॉन्ज एज इन इण्डिया , पृष्ठ 40 -41 )।
बहादराबाद में ताम्र उपकरण मिलने से व मृतका घड़ा मिलने, बिजनौर के राजपुर परसु में मिले धातु उपकरण (पॉल यूल ) से सिद्ध होता है कि हरिद्वार , बिजनौर व उत्तराखंड की पहाड़ियों में ताम्र संस्कृति भी फली- फूली। यद्यपि इस युग में कौन सी मानव नृशाखा के बारे में विद्वानो में कोई सहमति नही है। पहाड़ों में भी मलारी निवासी ताम्र उपकरण निर्माण करते थे या प्रयोग करते थे।
ताम्र उपकरणों हत्या उपयुक्त हथियार सिद्ध करते हैं कि अवश्य ही युद्ध होते रहे हैं और जनता त्रास में अवश्य रही होगी।
सहारनपुर आदि में हड़पा संस्कृति के अवशेस भी सिद्ध करते हैं कि हरिद्वार , बिजनौर और पहाड़ों में ताम्र संस्कृति परिस्कृत हो चुकी थी।
ताम्र युगांत में उत्तर भारत में अवश्य ही उथल -पुथल मची थी और हरिद्वार में भी उथल -पुथल मची होगी।
उत्तर भारत में लौह संस्कृति
उत्तर भारत में मनुष्य ने कब लौह संस्कृति अपनायी , यह अनिश्चित है। इतिहासकारों का मानना है कि ताम्बे और कांसे के उपकरण अपनाने के कई अधिक समय पश्चात मनुष्य ने लौह संस्कृति अपनायी।
सिंधु गंगा के मैदानों में ताम्बा -लोहा आवस्क नही मिलता है। यहां के मैदान वासियों को ताम्बे -लोहे के लिए पर्वतीय उत्तराखंड व छोटा नागपुर पर निर्भर करना पड़ता था. इसका अर्थ है कि हरिद्वार व बिजनौर मे ताम्बे -लोहे अवयस्क के आढ़ती व्यापारी भी रहे होंगे।
डा डबराल का मंतव्य है कि पर्वतीय उत्तराखंड में लोहे की व ताम्बे की खाने आस पास मिलती थीं तो अवश्य ही ताम्बा उपकरण व लौह उपकरण संस्कृति एक साथ जन्म ले सकती थी।
उत्तराखंड में लोहार और ताम्र उपकरण बनाने वाले एक ही परिवार वाले होते थे। निष्कर्ष निकल सकता है कि ताम्र उपकरण और लौह उपकरण बनाने वाले भिन्न नही रहे होंगे , शायद ताम्र खनन व धून व लौह खनन -धून व प्रयोग पहाड़ों से मैदानों की ओर प्रसार हुआ होगा।
डा शैलेन्द्र नाथ सेन (ऐन्सियन्ट इंडियन हिस्टरी ऐंड कल्चर , पृष्ठ 28 ) लिखते हैं कि अथर्वेद (2000 -2500 BC ) में लोहा का जिक्र है अतः लौह संस्कृति उत्तर भारत में दक्षिण भारत से पहले आई। भारत में लोहे के प्राचीनतम उपकरण कर्नाटक , दक्षिण , मध्य भारत , ओडिसा , बिहार , आसाम , राजस्थान , गुजरात , कश्मीर में प्राचीन काल की महाशिला समाधियों (Megalithic Monuments ) से प्राप्त हुए हैं। ऐसी समाधियाँ उत्तर प्रस्तर उपकरण युग में शुरू हो गयी थी और तीसरी -चौथी सदी तक चलती रही।
संदर्भ
१- डा शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास भाग - 2
२- पिगॉट - प्री हिस्टोरिक इंडिया पृष्ठ - 22
३- नेविल , 1909 सहारनपुर गजेटियर
४- अम्लानन्द घोष , 1990 ऐन इनसाइक्लोपीडिया ऑफ इंडियन आर्कियोलॉजी , पृष्ठ 37 ,
-पॉल यूल , मेटल वर्क ऑफ ब्रॉन्ज एज इन इण्डिया , पृष्ठ 41 -42
आलेख : श्री भीष्म कुकरेती